Skip to main content

ज़िंदगी झंड



एक भेड़ चाल ज़िंदगी,
एक भीड़ मे फँसी हुई,
ना  जानता  कोई हमें,
ना  हमको  जानना तुम्हे,
ना बैर भाव है कोई,
ना ही कोई संबंध है,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है.


एक छोटी सी घड़ी मेरी,
सोने कहाँ देती कभी,
जो Snooze करके हम पड़े,
जागा तो बोला..ओह तेरी!
फिर सोचा अपना boss भी ,
कहाँ वक़्त का पाबंद है,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है.




जो जैसे तैसे बस मिली,.
हर सिग्नल पे रूकती चली,
होता तो हमको गम अगर,
जो बस की अगली सीट पर,
बैठी ना होती वो कुड़ी,
जी आइटम प्रचंड है,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है.


एक इंतज़ार मैं कटी,
अपनी तो सारी ज़िंदगी,
वो तीस दिन की salary,
जो बीस दिन मे ही उड़ी,
बचे जो दस हैं और दिन,
क्रेडिट-कार्ड का प्रबंध है,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है.


नारी से कुछ तो नाता है,
अपनी समझ ना आता है,
दिल लेके अपना हाथ मैं,
ज्यों ही गये हम पास में,
वो क्यों थी चीख सी पड़ी,
तू चूतिया अखंड है,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है.


बिल्कुल थी लाखों खावहिशे,
थे हम भी बिल्कुल मनचले,
था हार का भी क्षोभ संग,
था दोस्तों का साथ भी,
क्या रोकता कोई हमें,
हम भी तो बस दबंग हैं,
ज़िंदगी ये झंड है,
फिर भी बड़ा घमंड है! 

Comments

  1. Hilarious!! Kya likha hai sahab, zindagi ki sachaai, ko is andaaz me agar us ladki(Bus waali) ko suna dete, to shaayad abhi ek prem kavita publish hui hoti!

    It was literally LOL. :)

    ReplyDelete
  2. are gajab amit..

    jindagi jhand hai
    bus tum doston ka sang hai..

    keet it up..

    --Prerit

    ReplyDelete
  3. @prerit Sir : Bahut bahut Dhanyawaad prabhu! :)

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

तीलियाँ

यहीं कहीं रखी थी , वो माचिस की डिबिया, खिड़की से उठा कर, के जाने कब कुछ पथ भ्रष्‍ट बूंदे, इसकी हस्ती के साथ खिलवाड़ कर बैठें. बिल्कुल, इंसानों से जुदा हैं ज़रा, ये बर्बाद होकर नम नही होती, नम होकर बर्बाद हो जाती हैं! बहुत तो नही, पर चंद तीलियाँ रही होंगी, यूँ ही पड़ी होंगी, जल जाने की फिराक़ में, पर अब ये शायद नही होगा, हालाकी किसी को फ़र्क़ भी नही पड़ता, और किसे फ़र्क़ पड़ जाए,  तो हमें फ़र्क़ पड़ता है? हाँ ! कभी कभी लगता है, कि, जो हमारी कोशिशें सही पड़ती, तो रोशन करने वाली इन तीलियों के हिस्से, गुमनामी के अंधेरे नही आते, मुक़्क़मल हो जाती शायद इनकी भी ज़िंदगी. ऐ उपरवाले ! जो गर देख रहा है तू , कही हमें देख कर भी तुझे, ऐसा ही तो नही लगता.

अठन्नीयाँ

खूँटी पर टॅंगी पिताजी के पैंट की जेब मे, ऐरियाँ उचकाकर, जब भी हाथ सरकाता रहा, नोटों के बीच दुबकी हुई, अठन्नी हाथ आती रही, जैसे आज फिर  आई हो क्लास, बिना होमवर्क किए, और छुप कर जा बैठी हो, कोने वाली सीट पर ! और हर दफ़ा, बहुतेरे इरादे किए, के गोलगप्पे खा आऊंगा चौक पर से या, बानिए की दुकान से, खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया, क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की, बस चुटकी भर देता है, और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है, मैं तो अब स्याना हो गया हूँ. या फिर, ऐसा करता हूँ  के चुप चाप रख लेता हूँ इसे, अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे, के जब भी आनमने ढंग से, पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ, शायद सिहर जाएँगी, इसके शीतल स्पर्श से. पर अभी अभी  वो बर्फ वाला आया था, तपती दुपहरी मे, अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते, और ले गया है वो अठन्नी , उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले, जिसकी बस सीक़  बची है, बर्फ पिघल चुकी है, कुछ ज़बान पर, कुछ हाथो मे, और फिर से अठन्नी हो गयी है, इस जेब से उस जेब, ठीक उम्र की तरह! जाने कितने