Skip to main content

आम का पेड़

लोग कहते हैं कि,
इसे लगाया नही था .
यूँ ही फेंक दी थी गुठली,
किसी ने चूस कर,
और ये पनप आया था.

पर मैने इसे हमेशा,
बड़ा ही देखा है,
बुजुर्ग सा ,
विशाल से तने वाला,
और तने से दुविधा के मानिंद ,
निकली हुई  दो शाखे.



उनमे  एक थी जो,
आसमान छूने निकली थी,
और उसपर मौसम
 रंग बदलते दिखते थे,
कोई मौसम उसपर मंज़रों पे,
हरा रंग मल जाता था ,
तो कभी गुच्छों मे 
लटके हुए फल दिख जाते थे,
प्रदर्शनकारियों से लाल पीले.


पर जो दूसरी साख  थी,
उसका रुख़ ज़मीन की तरफ था,
झुका हुआ था वो ज़रा,
जिसपर मंज़र तो आते थे,
पर चर लिए जाते थे,
या फिर शिकार हो जाते थे,
गुज़रने वालों के उतावलेपन का.

और यही सवाल था,
कि आख़िरकार 
 एक सी ज़मीन और,
एक सी आबो हवा मे,
ये कैसा बटवारा है,
के किसी के हिस्से हैं तल्खियाँ 
तो किसी को नाज़ों से सवाराँ है!


खैर वो सवाल वक़्त से साथ,
बढ़ता चला गया,
वो आम का पेड़ अब बढ़कर ,
मेरे मुल्क जितना बड़ा हो गया है,
और आज भी मैं हैरानी से
यही सोचता हूँ ,
पत्तों की सरकार मे कुछ साखें,
यूँ महरूम क्यों रह जातीं हैं!








Comments

  1. एक सी ज़मीन और,
    एक सी आबो हवा मे,
    ये कैसा बटवारा है,
    के किसी के हिस्से हैं तल्खियाँ
    तो किसी को नाज़ों से सवाराँ है!

    - बहुत खूब! छा गये! "निराला" मिजाज!

    ReplyDelete
  2. बहुत गहरी बात सहज ही कह दी ... समय के पास ही है हर सवाल का जवाब ...

    ReplyDelete
  3. awesome lines...tum jaise mali honge to nichli sakhaon pe bhi fal lagenge :)

    ReplyDelete
  4. Sunder prastuti ......badhaayi ... Mere blog par aapka swagat hai !!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

तीलियाँ

यहीं कहीं रखी थी , वो माचिस की डिबिया, खिड़की से उठा कर, के जाने कब कुछ पथ भ्रष्‍ट बूंदे, इसकी हस्ती के साथ खिलवाड़ कर बैठें. बिल्कुल, इंसानों से जुदा हैं ज़रा, ये बर्बाद होकर नम नही होती, नम होकर बर्बाद हो जाती हैं! बहुत तो नही, पर चंद तीलियाँ रही होंगी, यूँ ही पड़ी होंगी, जल जाने की फिराक़ में, पर अब ये शायद नही होगा, हालाकी किसी को फ़र्क़ भी नही पड़ता, और किसे फ़र्क़ पड़ जाए,  तो हमें फ़र्क़ पड़ता है? हाँ ! कभी कभी लगता है, कि, जो हमारी कोशिशें सही पड़ती, तो रोशन करने वाली इन तीलियों के हिस्से, गुमनामी के अंधेरे नही आते, मुक़्क़मल हो जाती शायद इनकी भी ज़िंदगी. ऐ उपरवाले ! जो गर देख रहा है तू , कही हमें देख कर भी तुझे, ऐसा ही तो नही लगता.

अठन्नीयाँ

खूँटी पर टॅंगी पिताजी के पैंट की जेब मे, ऐरियाँ उचकाकर, जब भी हाथ सरकाता रहा, नोटों के बीच दुबकी हुई, अठन्नी हाथ आती रही, जैसे आज फिर  आई हो क्लास, बिना होमवर्क किए, और छुप कर जा बैठी हो, कोने वाली सीट पर ! और हर दफ़ा, बहुतेरे इरादे किए, के गोलगप्पे खा आऊंगा चौक पर से या, बानिए की दुकान से, खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया, क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की, बस चुटकी भर देता है, और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है, मैं तो अब स्याना हो गया हूँ. या फिर, ऐसा करता हूँ  के चुप चाप रख लेता हूँ इसे, अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे, के जब भी आनमने ढंग से, पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ, शायद सिहर जाएँगी, इसके शीतल स्पर्श से. पर अभी अभी  वो बर्फ वाला आया था, तपती दुपहरी मे, अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते, और ले गया है वो अठन्नी , उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले, जिसकी बस सीक़  बची है, बर्फ पिघल चुकी है, कुछ ज़बान पर, कुछ हाथो मे, और फिर से अठन्नी हो गयी है, इस जेब से उस जेब, ठीक उम्र की तरह! जाने कितने