अंत कैसा होना चाहिए?
कहानी से बेहतर ,
या कहानी के कहीं आस-पास.
घर मे चावल धोते हुए ,
जो दाने बह जाते हैं पानी के साथ,
वो अलग तो नही होते,बाकी सारी जमात से!
बस अलग हो जाते हैं, शायद..
और क्या पता रहे होंगे अलग? ख़ास?
क्या पता वो सबसे खूबसूरत बालियां रही होंगी खेत में,
क्या पता देख कर उसे सबसे ज़्यादा हरसया होगा किसान.
क्या पता?
क्या पता वो आख़िरी कुछ दाना रहा होगा उस बोरी में,
जिसे भर कर लाया गया हो आपके शहर,
क्या पता आपने हाथों मे परखे हो वही दाने,
और बँधवा लाए हो अपने घर.
और फिर ,फिर क्या हुआ?
ख़तम. झटके में।
ऐसे कैसे?
ऐसे नहीं खत्म होती कहानियां!
अंत बेमन से स्वीकारने कि आदत नहीं हमें,
अंत को तो घुल जाना चाहिए जेहन में। पर ,क्या वाकई अंत तय करती है,
कहानी कैसी थी?
या कहानियाँ होती है,
अंत से परे।
-इरफान साब के लिए
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