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With love from Chandramukhi

वो मिली मुझे आखिरकार,
घर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर,
एक पहाड़ी की चोटी पर
थका बेहाल पड़ा था जब
और वो , वैसी ही थी आज भी
बाल बिखराये, बेपरवाह।
सुकून देती हुई किसी खूबसूरत नज़्म सी।
 जिसे  पढ़ लेना काफी नहीं होता,
फैलने देना होता है अपने भीतर ।
 और इतने में वो आयी और  कहने लगी,
 आज फिर लाद कर आए हो ना,
 अपनी पीठ पर बस्ते का बोझ
 वापिस लौट जाने को अपनी उन्हीं बस्तियों में।
 शिकायत नहीं थी,निराशा थी उसके लफ़्ज़ों में।
 और इससे पहले कि बोल पाता , हिचकते हुए
 वो कह कर चली गई
 हां आ सकते हो ,देव बाबू
 इस कोठे पे जब दिल करे ,
 धुत्त हो जाने  ज़िन्दगी के नशे में,
 इन पत्थरों की कहानियां सुनने 
 झूमने इन पत्तियों के साथ।
 जब ठुकरा दे तुम्हे,
 तुम्हारी ही बनाई गई दुनिया।
 आसमान लपेटी हुई कोई शाम,
 तुम्हे हमेशा गले लगा लेगी।


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एक बेतुकी कविता

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तीलियाँ

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अठन्नीयाँ

खूँटी पर टॅंगी पिताजी के पैंट की जेब मे, ऐरियाँ उचकाकर, जब भी हाथ सरकाता रहा, नोटों के बीच दुबकी हुई, अठन्नी हाथ आती रही, जैसे आज फिर  आई हो क्लास, बिना होमवर्क किए, और छुप कर जा बैठी हो, कोने वाली सीट पर ! और हर दफ़ा, बहुतेरे इरादे किए, के गोलगप्पे खा आऊंगा चौक पर से या, बानिए की दुकान से, खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया, क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की, बस चुटकी भर देता है, और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है, मैं तो अब स्याना हो गया हूँ. या फिर, ऐसा करता हूँ  के चुप चाप रख लेता हूँ इसे, अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे, के जब भी आनमने ढंग से, पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ, शायद सिहर जाएँगी, इसके शीतल स्पर्श से. पर अभी अभी  वो बर्फ वाला आया था, तपती दुपहरी मे, अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते, और ले गया है वो अठन्नी , उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले, जिसकी बस सीक़  बची है, बर्फ पिघल चुकी है, कुछ ज़बान पर, कुछ हाथो मे, और फिर से अठन्नी हो गयी है, इस जेब से उस जेब, ठीक उम्र की तरह! जाने कितने