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With love from Chandramukhi

वो मिली मुझे आखिरकार,
घर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर,
एक पहाड़ी की चोटी पर
थका बेहाल पड़ा था जब
और वो , वैसी ही थी आज भी
बाल बिखराये, बेपरवाह।
सुकून देती हुई किसी खूबसूरत नज़्म सी।
 जिसे  पढ़ लेना काफी नहीं होता,
फैलने देना होता है अपने भीतर ।
 और इतने में वो आयी और  कहने लगी,
 आज फिर लाद कर आए हो ना,
 अपनी पीठ पर बस्ते का बोझ
 वापिस लौट जाने को अपनी उन्हीं बस्तियों में।
 शिकायत नहीं थी,निराशा थी उसके लफ़्ज़ों में।
 और इससे पहले कि बोल पाता , हिचकते हुए
 वो कह कर चली गई
 हां आ सकते हो ,देव बाबू
 इस कोठे पे जब दिल करे ,
 धुत्त हो जाने  ज़िन्दगी के नशे में,
 इन पत्थरों की कहानियां सुनने 
 झूमने इन पत्तियों के साथ।
 जब ठुकरा दे तुम्हे,
 तुम्हारी ही बनाई गई दुनिया।
 आसमान लपेटी हुई कोई शाम,
 तुम्हे हमेशा गले लगा लेगी।


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एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

बदलाव

Patratu Thermal Power Station तुम्हारा ख़याल है  ,कुछ भी तोह नहीं बदला वहीँ तोह खड़ा है वो सहतूत का पेड़ उन खट्टी शामों को शाखों  पे सजाये ये रहा चापाकल के पास इंसानों का जत्था कोक  से आज भी प्यास नहीं बुझती ना ! आज भी दिखाई देता है सड़क से  मेरे घर की  खिड़की का पल्ला बाहे फैलाए ये सड़क आज भी मिल जाती है उसी मैदान से पहली बार जहाँ घुटने  छिले थे मेरे ! कुछ तोह बदला है लेकिन झुक गया है जरा सा  सहतूत का पेड़, शायद उम्र की बोझे के तले! चापाकल  से  आखे अब  ऐसे देखती हैं , जैसे अजनबी हूँ इस राह क लिए! घुन बसते  हैं  खिड़की क पल्लों में आजकल पीपल की जड़े  भी तोह घुसपैठ कर रही है दीवारों से! क़दमों को भी गुमान होता है अपनी ताकत पर ठोकरों से भी  टूटने लगी है ये सड़क भी किनारों से! दिल कहता है फिर सब पहले सा  क्यों नहीं है? मैं कहता हूँ ,बेटे! सबकुछ वहीँ है बस  वही नहीं है!

बीमार कुत्ता

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