Skip to main content

सड़क के उस पार

वो सड़क पार कर रही थी, मैं भी.
उसने सड़क का मुआयना किया,मैने भी!
वो तेज़ी से आगे बढ़ी, मैं भी.
वो सड़क के उस पार थी , मैं भी!

'मेडम' आवाज़ लगाई
एक ऑटो वाले ने,
वो मुड़ी और मै  भी.
उसके बैग से गिरी एक चीज़
कुचलती हुई निकल गयी एक कार.
और फिर ,और बड़े तिरस्कार से बड़बड़ाई
ओह ! पेन.
उसे ज़रा भी अफ़सोस नही था,
और मुझे..
था ,बस इसी बात का.'
कि था एक जमाना के जब
पेन मे रीफिल बदली जाती थी,
और एहसास चिट्ठियों मे लिखे जाते थे!
लिखावट को तवज़्ज़ो देते थे लोग
प्रिंट आउट नही होता था तब.
खबरों केलिए
कल की अख़बार का इंतज़ार होता था
कॉँमेंट्री रेडियो पर भी सुनी जाती थी
और सचिन ओपन करने आता था
इश्क़ बस फ़िल्मो मे होता था
असल ज़िंदगी मे तो  बस  चक्कर.
आवारगी भी  खूब होता थी
और पिटाई भी होती थी जमकर.
तब  फ़िल्मो मे हीरो दौड़ते दौड़ते 
बड़े हो जाते थे.
और आज़ ..
सड़क पार करते-करते
मैने खुद को बड़ा होते देखा !

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

बदलाव

Patratu Thermal Power Station तुम्हारा ख़याल है  ,कुछ भी तोह नहीं बदला वहीँ तोह खड़ा है वो सहतूत का पेड़ उन खट्टी शामों को शाखों  पे सजाये ये रहा चापाकल के पास इंसानों का जत्था कोक  से आज भी प्यास नहीं बुझती ना ! आज भी दिखाई देता है सड़क से  मेरे घर की  खिड़की का पल्ला बाहे फैलाए ये सड़क आज भी मिल जाती है उसी मैदान से पहली बार जहाँ घुटने  छिले थे मेरे ! कुछ तोह बदला है लेकिन झुक गया है जरा सा  सहतूत का पेड़, शायद उम्र की बोझे के तले! चापाकल  से  आखे अब  ऐसे देखती हैं , जैसे अजनबी हूँ इस राह क लिए! घुन बसते  हैं  खिड़की क पल्लों में आजकल पीपल की जड़े  भी तोह घुसपैठ कर रही है दीवारों से! क़दमों को भी गुमान होता है अपनी ताकत पर ठोकरों से भी  टूटने लगी है ये सड़क भी किनारों से! दिल कहता है फिर सब पहले सा  क्यों नहीं है? मैं कहता हूँ ,बेटे! सबकुछ वहीँ है बस  वही नहीं है!

बीमार कुत्ता

वो बीमार कुत्ता  जो दरवाजे के पास, गोल गोल चक्कर लगाता था,  शून्य के इर्द-गिर्द! गिर जाता था, फिर होश संभाल कर, घूमने लगता था, उसे जाना नही था कहीं, बस यूँ  ही काट देनी थी, अपनी बची खुची ज़िन्दगी। आज किसी भीड़ मे जब , एक ख्वाब से, हाथ छुड़ा कर घर आया, तो बड़ी देर तक जेहन में,  वो कुत्ता, गोल गोल घूमता रहा ।