हाँ, बिल्कुल ज़ायज़ था,
तेरा गुस्से मे तकिया फाड़ देना,
और बिखेर देना रूई को,
आसमान मे चारो तरफ,
के आख़िर किस बिनाह पर,
तुझे कोसते चलते हैं लोग,
के जबकि मैने खुद देखी है,
सीधी सटीक वर्गाकार खेतों की मेडे,
और सलीके से चुपचाप बहती नदी,
स्लो मोशन मे रेंगती मोटर कारे,
और सन्नाटे मे डूबा एक पूरा सहर.
ना कोलाहल, न कोहराम,
ना अल्लाह , ना राम,
ना दीवारे, ना दरवाजे,
ना जनता, ना महाराजे,
ना शोर, ना संवाद,
ना गम, ना उन्माद.
और जबकि मेरा जहाज़ ,
तो ज़रा सी उँचाई पे रहा होगा,
पर तू तो दूर,
कहीं दूर,
बहुत उपर बैठता है ना!
वो सब कुच्देखता होगा वहाँ से ... शायद इसलिए गुस्सा होगा ...
ReplyDeleteभावमय ...
bahut bahut shukriya naswa shaab! :)
Deletesundar rachna...
ReplyDeleteDhanyawaad !
DeleteIn conversation with Him ? :) The best company!!
ReplyDeleteThanks for the read!
Delete....बहुत ही सुन्दर बहुत ही सुकून भरी पंक्तियाँ..!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों को आपने शब्दों में ढाला है
Sanjay shaab! bahut bahut shukriya! :)
Deleteवाह क्या बात है। उम्दा रचना।
ReplyDeleteDhanyawaad!
DeleteSerene !
ReplyDeleteEverything looks perfect from a distance isn't it ...
Once you are detached from it
Thats why He lives up there I think
Ignorant bliss i guess
True. Thanks. :)
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