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उसके बचाव में


हाँ, बिल्कुल ज़ायज़ था,
तेरा गुस्से मे तकिया फाड़ देना,
और बिखेर देना रूई को,
आसमान मे चारो तरफ,

के आख़िर किस बिनाह पर,
तुझे कोसते चलते हैं लोग,
के जबकि मैने खुद देखी है,
सीधी सटीक वर्गाकार खेतों की मेडे,
और सलीके से चुपचाप बहती नदी,
स्लो मोशन मे रेंगती मोटर कारे,
और सन्नाटे मे डूबा एक पूरा सहर.

ना कोलाहल, न कोहराम,
ना अल्लाह , ना राम,
ना दीवारे, ना दरवाजे,
ना जनता, ना महाराजे,
ना  शोर, ना संवाद,
ना  गम, ना उन्माद.

और जबकि मेरा जहाज़ ,
तो ज़रा सी उँचाई पे रहा होगा,
पर तू तो दूर,
 कहीं दूर,
बहुत उपर बैठता है ना! 





Comments

  1. वो सब कुच्देखता होगा वहाँ से ... शायद इसलिए गुस्सा होगा ...
    भावमय ...

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  2. In conversation with Him ? :) The best company!!

    ReplyDelete
  3. ....बहुत ही सुन्दर बहुत ही सुकून भरी पंक्तियाँ..!!

    बहुत सुन्दर भावों को आपने शब्दों में ढाला है

    ReplyDelete
  4. वाह क्या बात है। उम्दा रचना।

    ReplyDelete
  5. Serene !

    Everything looks perfect from a distance isn't it ...
    Once you are detached from it

    Thats why He lives up there I think
    Ignorant bliss i guess

    ReplyDelete

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एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

बदलाव

Patratu Thermal Power Station तुम्हारा ख़याल है  ,कुछ भी तोह नहीं बदला वहीँ तोह खड़ा है वो सहतूत का पेड़ उन खट्टी शामों को शाखों  पे सजाये ये रहा चापाकल के पास इंसानों का जत्था कोक  से आज भी प्यास नहीं बुझती ना ! आज भी दिखाई देता है सड़क से  मेरे घर की  खिड़की का पल्ला बाहे फैलाए ये सड़क आज भी मिल जाती है उसी मैदान से पहली बार जहाँ घुटने  छिले थे मेरे ! कुछ तोह बदला है लेकिन झुक गया है जरा सा  सहतूत का पेड़, शायद उम्र की बोझे के तले! चापाकल  से  आखे अब  ऐसे देखती हैं , जैसे अजनबी हूँ इस राह क लिए! घुन बसते  हैं  खिड़की क पल्लों में आजकल पीपल की जड़े  भी तोह घुसपैठ कर रही है दीवारों से! क़दमों को भी गुमान होता है अपनी ताकत पर ठोकरों से भी  टूटने लगी है ये सड़क भी किनारों से! दिल कहता है फिर सब पहले सा  क्यों नहीं है? मैं कहता हूँ ,बेटे! सबकुछ वहीँ है बस  वही नहीं है!

बीमार कुत्ता

वो बीमार कुत्ता  जो दरवाजे के पास, गोल गोल चक्कर लगाता था,  शून्य के इर्द-गिर्द! गिर जाता था, फिर होश संभाल कर, घूमने लगता था, उसे जाना नही था कहीं, बस यूँ  ही काट देनी थी, अपनी बची खुची ज़िन्दगी। आज किसी भीड़ मे जब , एक ख्वाब से, हाथ छुड़ा कर घर आया, तो बड़ी देर तक जेहन में,  वो कुत्ता, गोल गोल घूमता रहा ।