इश्क़ और सियासत मे एक समानता है, वो आपकी समझ-बूझ पर बट्टा लगा देती है कुछ ऐसे की पता ही नही चलता की इस तरफ या उस तरफ.! फ़र्क बस इतना है की इश्क़ मे ये अनायास होता है,और सियासत मे अक्सर तैयारी से. ऐसे ही हासिये पे अटके कई सारे हालत आपके समक्ष :
मुड़ के देखा था उसने जाते जाते,
खैर हम कह भी उनसे क्या पाते,
उनकी आँखों मे डबडाबाते हुए,
कुछ सवाल से तो थे,
पर सवाल नही.
घरूब-ए-आफताब [ढलता सूरज] देखा था,
उनकी उंगलियों के पोरों से,
तब से बगिया मे फूल उरहुल के,
थे तनिक लाल से ,
पर लाल नही.
इक दफ़ा इन्क़िलाब गाया था,
सियासतदारों की तंग गलियों मे,
थी आरजू की कुछ बदल डालूं,
तरीके ज़रा बवाल से थे,
पर बवाल नही.
जिनकी जेबें टटोल कर तुमने,
रखा था हांसियों, पे सालों तक,
उनकी मुट्ठी मे वोट थे लेकिन,
लगते भले कंगाल से थे,
पर कंगाल नही.
मेरा घर देख कर जो पूछे कभी ,
शहरवालों ! जो कोई हाल मेरा,
उससे कहना कि ना वो फ़िक्र करे,
हैं तनिक बेहाल से,
पर बेहाल नही!
बहुत खूब .. गहर बातों को आसानी से कह दिया ...लाजवाब ..
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया Sir! :)
Deleteख़याल सैलाब हैं
ReplyDeleteसैलाब नहीं!
बहुत खूब!
धन्यवाद sir jee! :)
DeleteAwesome !!
ReplyDeleteYou have matured
Bahut bhaut shukriya!:)
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