कभी गौर किया है पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!
kabhi kabhi lagta hai hum ret bacha rahe hain magar yeh koshish khud ko bachane ki hoti hai...kahin wo tez lehren apni ret ke saath hume bhi na baha le jayen...
ReplyDeleteलौटती लहरों पे खड़ा हूँ ,
ReplyDeleteजमी न बचा पाऊं शायद ,
कुछ रेत बचा ही सकता हूँ,
अपने पैरो तले!
nice imagination...too gud..!!!
@praveen:bikul..puri taakat se pakadte hain ret ko shayad yahi thaam le beh jaane se..jis ret ki apni hi koi jameen nahi hoti!thanxx for the read!
ReplyDelete@saumya:appreciation frm the poets of ur level really counts!bahut bahut dhanyawaad!:)
ReplyDeleteWell we still resist the flow how foolish of us ...
ReplyDeleteTrying to save worth not saving ...
Ego and Ashmita
Our very nature is to flow and fade away along with existence
But we resist for what ?
Sand and Foam ... ?
How true ! Thanks fot the read! :)
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