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ख्वाहिशे..


बड़ी  कुत्ती  चीज़  हैं  ये  ख्वाहिशें   भी
यूँ ही सफ़र कभी खतम नहीं होते  
ना मिला तो सबकुछ, मिल गया तो  ख़ाक !

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बग़ावत

मैं वो कहाँ लिखता हूँ जो मैं लिखना चाहता हूँ, मैं वो भी नही लिखता जो आप पढ़ना चाहते हैं, हमारे दरम्यान जो बिखरे पड़े हैं, वो तो कुछ लफ्ज़ हैं जो बग़ावत कर बैठे हैं. गर मान लें इनकी तो मेरी रूह का विस्तार,  इनकी उड़ान के लिए शायद छोटा पड़ जाता  है, या शायद मेरे मन के अंधेरों में , बढ़ जाता है इनकी गुमशुदगी का एहसास. इन्हे लगता है कि बरसो से मैने बस कुचला है  इन्हे. कभी वक़्त ने नाम पर, कभी हालात का हवाला देकर ! नादान हैं, नही मालूम इनको गर्दिशे जमाने की, के धूल की परतों तले, गुज़र जाती है ज़िंदगानी भी. अंजान , के कितने महफूज़ थे ये मेरे ख़यालों मे. इन्हे अक्सर लगता था कि मैं कोई तानाशाह हूँ, मेरे लफ्ज़ तू विदा ले,और हिन्दुस्तान देख आ, लोकशाही के हालत भी कुछ  ज़्यादा  अच्छे नहीं है!  P.S. : I  am a firm believer in the idea called democracy and India. The last few  lines are inspired from the current state of affairs in our country . This is how i show my solidarity with Mr. Aseem Tr...

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

अंत

अंत कैसा होना चाहिए?  कहानी से बेहतर ,  या कहानी के कहीं आस-पास.  घर मे चावल धोते हुए ,  जो दाने बह जाते हैं पानी के साथ,  वो अलग तो नही होते,बाकी सारी जमात से!  बस अलग हो जाते हैं, शायद..  और क्या पता रहे होंगे अलग? ख़ास?  क्या पता वो सबसे खूबसूरत बालियां रही होंगी खेत में,  क्या पता देख कर उसे सबसे ज़्यादा हरसया होगा किसान.  क्या पता?  क्या पता वो आख़िरी कुछ दाना रहा होगा उस बोरी में,  जिसे भर कर लाया गया हो आपके शहर,  क्या पता आपने हाथों मे परखे हो वही दाने,  और बँधवा लाए हो अपने घर.  और फिर ,फिर क्या हुआ?  ख़तम. झटके में।  ऐसे कैसे? ऐसे नहीं खत्म होती कहानियां! अंत बेमन से स्वीकारने कि आदत नहीं हमें, अंत को तो घुल जाना चाहिए जेहन में। पर ,क्या वाकई अंत तय करती है, कहानी कैसी थी? या कहानियाँ होती है, अंत से परे।  -इरफान साब के लिए