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त्रिवेणियाँ


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चाहे अल्फाजो से तराशते रहे बरसो
कितनी भी दफा चोट करो सोचों से
पर कुछ एहसास कभी शक्ल नहीं ले पाते!!
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बड़ी देर समझाते रहे हम दिल को
बड़ी देर दिल हमे समझाता रहा
इल्म ही ना हुआ कैसे ज़िन्दगी गुजर गयी !!!
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आरजू थी की एक रोज़ आपसे फुर्सत में यूँ मिलें
चंद दास्ताँ कहे अपनी,चंद दास्ताँ सुनें
कभी बताया नहीं आपने, फुर्सत से आपका हेड-टेल वाला रिश्ता है !!!
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मेरे खयालो से तेरे घर का रास्ता मुझे पहचान गया है
भटक भी जाता हूँ तो रास्ता खुदबखुद मुड़ जाता हैं
यू ही नहीं , फासले तय करने में अब मज़ा आने लगा है!!!
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उलझ पड़े हैं दो ख़याल आ़ज भी
शक्ल एक सी है, इरारदे जुदा हैं
फिर आज जो गलत होगा , जीत जाएगा !!
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Comments

  1. उलझ पड़े हैं दो ख़याल आ़ज भी
    शक्ल एक सी है, इरारदे जुदा हैं
    फिर आज जो गलत होगा , जीत जाएगा !!

    again too gud...

    ReplyDelete
  2. Cant Appreciate Enough
    I mean triveni is my favorite in hindi literature

    Awesome is an understatement ....

    And the last one Is Perhaps the sum total of our life !
    What Else can u possibly write in three lines ...

    ReplyDelete
  3. @chandan: Life inspires me to write and if you can sense it somewhere in these lines, it completes my works. thanks for ur kind words ,gurudev!

    ReplyDelete

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एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

तीलियाँ

यहीं कहीं रखी थी , वो माचिस की डिबिया, खिड़की से उठा कर, के जाने कब कुछ पथ भ्रष्‍ट बूंदे, इसकी हस्ती के साथ खिलवाड़ कर बैठें. बिल्कुल, इंसानों से जुदा हैं ज़रा, ये बर्बाद होकर नम नही होती, नम होकर बर्बाद हो जाती हैं! बहुत तो नही, पर चंद तीलियाँ रही होंगी, यूँ ही पड़ी होंगी, जल जाने की फिराक़ में, पर अब ये शायद नही होगा, हालाकी किसी को फ़र्क़ भी नही पड़ता, और किसे फ़र्क़ पड़ जाए,  तो हमें फ़र्क़ पड़ता है? हाँ ! कभी कभी लगता है, कि, जो हमारी कोशिशें सही पड़ती, तो रोशन करने वाली इन तीलियों के हिस्से, गुमनामी के अंधेरे नही आते, मुक़्क़मल हो जाती शायद इनकी भी ज़िंदगी. ऐ उपरवाले ! जो गर देख रहा है तू , कही हमें देख कर भी तुझे, ऐसा ही तो नही लगता.

अठन्नीयाँ

खूँटी पर टॅंगी पिताजी के पैंट की जेब मे, ऐरियाँ उचकाकर, जब भी हाथ सरकाता रहा, नोटों के बीच दुबकी हुई, अठन्नी हाथ आती रही, जैसे आज फिर  आई हो क्लास, बिना होमवर्क किए, और छुप कर जा बैठी हो, कोने वाली सीट पर ! और हर दफ़ा, बहुतेरे इरादे किए, के गोलगप्पे खा आऊंगा चौक पर से या, बानिए की दुकान से, खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया, क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की, बस चुटकी भर देता है, और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है, मैं तो अब स्याना हो गया हूँ. या फिर, ऐसा करता हूँ  के चुप चाप रख लेता हूँ इसे, अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे, के जब भी आनमने ढंग से, पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ, शायद सिहर जाएँगी, इसके शीतल स्पर्श से. पर अभी अभी  वो बर्फ वाला आया था, तपती दुपहरी मे, अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते, और ले गया है वो अठन्नी , उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले, जिसकी बस सीक़  बची है, बर्फ पिघल चुकी है, कुछ ज़बान पर, कुछ हाथो मे, और फिर से अठन्नी हो गयी है, इस जेब से उस जेब, ठीक उम्र की तरह! जाने कितने