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आखिरी एहसान


वो जा रही थी ,
अलविदा कह कर
मेरे सुमधुर सपनों को ,
मेरे प्राणप्रिय अपनों को ,
गुनगुनाये कुछ गीतों को,
कुछ अधूरे से गज़लों को,
कुछ अनजाने ठहरावों को ,
कुछ अजनबी मज़िलों को,
कुछ जवाँ सी ख्वाहिसों को ,
कुछ बचकानी फरमाइशों को ,
मेरे अस्त होते अस्तित्व को ,
मेरे धुंधले से व्यतित्व को ,
वो आज छोड़ कर जा रही थी ..

आखिरकार मैंने आवाज लगा ही दी ,
ए निष्ठुर !!! जरा खता तो बताती जा ?
वो जाते जाते ठहर गयी ,
मुड़कर मेरे करीब आई
और कहने लगी ::
तू हर रोज़ एक ख्वाहिश करता रहा ,
और मैं हर पल उसे पूरी करने की कोशिश!!!!
कुछ कोशिशे हकीकत में बदलती रही,
और हर हकीकत एक फरमाइश जनती रही..
आज भी शिकायत ये नहीं , की तूने ख्वाहिसें करता रहा ,
शिकायत ये है की तू मुझसे बस शिकायते ही करता रहा !!
भला क्यों बनी फिरती रहूँ वन वन, बन बन तेरी परछाई??
जब कभी लम्हे भर की खातिर भी,तुझे मरी कद्र ना आई??

अभी इन सच्चाई की गहराइयों से
उसके करीब आ ही पाता,
कि वो मुझपर आखिरी एहसान कर,
कहीं दूर निकल चुकी थी ...

Comments

  1. the pain of parting beautifully described and the fact that we need to express ourselves in the relationships vehemently is nicely illustrated ! cudnt agree more wid u that we need to express love more than any other thing to keep the relationship going !! kudos to u !!

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