Skip to main content

अब


वक़्त था जब ये जहाँ हमारा था
अब तो सांस भी मांग कर लिया करते हैं
वक़्त था जब इतराते थे अपने साये को देख कर भी
अब तो आईने से भी मुह छुपा के चलते हैं
वक़्त था जब मंजिलो तक पहुचने का हौसला था
अब तो ठोकरों से ही टूट जाया करते हैं
वक़्त था बेपरवाह ख्वाबो में जिया करते थे
अब हकीकत से भी हम हँस के मिला करते हैं

दरअसल उम्र बन जाते हैं कुछ लम्हे
तजुर्बा बन जाते हैं कुछ फैसले
बाजुए अब कर्म नही करना चाहती
ये अब चेहरा छुपाने के काम आती हैं
आहिस्ता आहिस्ता ही सही भ्रम टूट जाता है
जिंदगी अपनी औकात पे आजाती है
बस पहली कुछ दफा बाद दर्द होता है
फिरजनाब आदत सी हो जाती है...

Comments

  1. वक़्त था जब ये जहाँ हमारा था
    अब तो सांस भी मांग कर लिया करते हैं.....loved it ...u express thots very nicely...keep writing..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक बेतुकी कविता

कभी गौर किया है  पार्क मे खड़े उस लैंप पोस्ट पे , जो जलता रहता है , गुमनामी मे अनवरत, बेवजह! या  दौड़े हो कभी, दीवार की तरफ, बस देखने को एक नन्ही सी चीटी ! एक छोटे से बच्चे की तरह, बेपरवाह! या फिर कभी  लिखी है कोई कविता, जिसमे बस ख़याल बहते गये हो, नदी की तरह ! और नकार दिया हो जिसे जग ने  कह कर, बेतुकी . या कभी देखा है खुद को आईने मे, गौर से , उतार कर अहम के  सारे मुखौटे, और बड़बड़ाया  है कभी.. बेवकूफ़. गर नही है आपका जवाब, तो ऐसा करते है जनाब, एक  बेवजह साँस की ठोकर पर, लुढ़का देते हैं ज़िंदगी, और देखते हैं की वक़्त की ढलानों पर, कहाँ जाकर ठहेरती है ये, हो सकता है, इसे इसकी ज़मीं मिल जाए. किनारो से ज़रा टूट कर ही सही, और आपको मिल जाए शायद, सुकून... बेहिसाब!

बदलाव

Patratu Thermal Power Station तुम्हारा ख़याल है  ,कुछ भी तोह नहीं बदला वहीँ तोह खड़ा है वो सहतूत का पेड़ उन खट्टी शामों को शाखों  पे सजाये ये रहा चापाकल के पास इंसानों का जत्था कोक  से आज भी प्यास नहीं बुझती ना ! आज भी दिखाई देता है सड़क से  मेरे घर की  खिड़की का पल्ला बाहे फैलाए ये सड़क आज भी मिल जाती है उसी मैदान से पहली बार जहाँ घुटने  छिले थे मेरे ! कुछ तोह बदला है लेकिन झुक गया है जरा सा  सहतूत का पेड़, शायद उम्र की बोझे के तले! चापाकल  से  आखे अब  ऐसे देखती हैं , जैसे अजनबी हूँ इस राह क लिए! घुन बसते  हैं  खिड़की क पल्लों में आजकल पीपल की जड़े  भी तोह घुसपैठ कर रही है दीवारों से! क़दमों को भी गुमान होता है अपनी ताकत पर ठोकरों से भी  टूटने लगी है ये सड़क भी किनारों से! दिल कहता है फिर सब पहले सा  क्यों नहीं है? मैं कहता हूँ ,बेटे! सबकुछ वहीँ है बस  वही नहीं है!

बीमार कुत्ता

वो बीमार कुत्ता  जो दरवाजे के पास, गोल गोल चक्कर लगाता था,  शून्य के इर्द-गिर्द! गिर जाता था, फिर होश संभाल कर, घूमने लगता था, उसे जाना नही था कहीं, बस यूँ  ही काट देनी थी, अपनी बची खुची ज़िन्दगी। आज किसी भीड़ मे जब , एक ख्वाब से, हाथ छुड़ा कर घर आया, तो बड़ी देर तक जेहन में,  वो कुत्ता, गोल गोल घूमता रहा ।