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Showing posts from April, 2019

With love from Chandramukhi

वो मिली मुझे आखिरकार, घर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर, एक पहाड़ी की चोटी पर थका बेहाल पड़ा था जब और वो , वैसी ही थी आज भी बाल बिखराये, बेपरवाह। सुकून देती हुई किसी खूबसूरत नज़्म सी।  जिसे  पढ़ लेना काफी नहीं होता, फैलने देना होता है अपने भीतर ।  और इतने में वो आयी और  कहने लगी,  आज फिर लाद कर आए हो ना,  अपनी पीठ पर बस्ते का बोझ  वापिस लौट जाने को अपनी उन्हीं बस्तियों में।  शिकायत नहीं थी,निराशा थी उसके लफ़्ज़ों में।  और इससे पहले कि बोल पाता , हिचकते हुए  वो कह कर चली गई  हां आ सकते हो ,देव बाबू  इस कोठे पे जब दिल करे ,  धुत्त हो जाने  ज़िन्दगी के नशे में,  इन पत्थरों की कहानियां सुनने   झूमने इन पत्तियों के साथ।  जब ठुकरा दे तुम्हे,  तुम्हारी ही बनाई गई दुनिया।  आसमान लपेटी हुई कोई शाम,  तुम्हे हमेशा गले लगा लेगी।