एक अजनबी शहर की किसी वीरान स्टेशन पर, बड़े विशाल छत के नीचे बैठा, एक सूक्ष्म इंसान, जो उस अंजानेपन को मिटने में लगा हो, जिसे आती जाती निगाहों ने, खीच दी है उसकी ललाट पर। और इतने मे, कोई धीरे धीरे आकर लग जाता है प्लेटफार्म पे बिना शोर किये, और पल भर में, आती हुई किसी हॉर्न की आवाज पर साइड दे देता है आने वाली local ट्रेन को, ट्रेन क दरवाजे की धक्का मुक्की में, वो सूक्ष्म होने वाला एहसास कहीं प्लेटफार्म पर ही दौड़ता रह जाता है , ट्रेन की गेट पर पर खड़े, अजीब चेहरों की परछाइयों मे हाथ बटुआ टटोल लेता है और ठंडी हवा जिस्म, और इमारतों की खिड़कियों से घूरती रौशनी के दरम्यान, अगले स्टेशन पर, पड़ोस में खड़ा सुकून उतर जाता है कंधे पर धक्का देकर, earphone पर पीकू वाला 'बेजबान' गाना रात की तरह ढलता चला जाता है| पर वो अभी भी साथ है। पर वो है कौन? जिस्म ? तो आखे क्यों नहीं फारकती उसकी, उसने हाथ क्यों नहीं बढ़ाया अब तक। रूह? होती क्या है वो? न देखी कभी,न महसूस किया कभी. खुदा? उसकी तरह निराकार तो है, पर मगर मुझे लग