कई बार मैं आसमान की तरफ देखता हूँ और कुछ नही सोचता, कई बार मैं चाँद को सोचता हूँ आखें बंद करके, कई बार जब तुम्हे सोचता हूँ, तो तुम्हे देखने लगता हूँ! और जब देखता हूँ तुम्हे , तो सोचने लगता हूँ कि देखा जाए तो बहोत ज़्यादा फ़र्क नही है देखने और सोचने मे, देखने का तरीका है, जी बस! कि जो देखते हैं , उसे सोच लेते हैं, और जो सोचते हैं , उसे देख लेते हैं! उतना ही सोच पाते हैं ,जितना देख पाते हैं और उतना ही देख पाते हैं, जितना सोच पाते हैं! बनाने वाले ने फिर क्या सोच कर आँख और अकल अलग अलग बनाई होगी? देखा जाए तो, इतते बड़े आसमान के नीचे इतनी बड़ी है दुनिया, और कितना कम है जो हम देख पाते हैं या सोच पाते हैं सोचता हूँ मैं कभी कभी, के देखने और सोचने का ये जो सिलसिला नही होता, जो यकीन नही होता अपनी आखों पर इतना, और अपने सोचने पे इतना गुमान नही होता , तो क्या कुछ और देख पता मैं, तो क्या कुछ और सोच पाता मैं! के फिर आसमान देख कर, पता नही क्या सोचता? और चाँद सोचने की, कुछ और बात होती. आप भी सोचिए,