लोग कहते हैं कि, इसे लगाया नही था . यूँ ही फेंक दी थी गुठली, किसी ने चूस कर, और ये पनप आया था. पर मैने इसे हमेशा, बड़ा ही देखा है, बुजुर्ग सा , विशाल से तने वाला, और तने से दुविधा के मानिंद , निकली हुई दो शाखे. उनमे एक थी जो, आसमान छूने निकली थी, और उसपर मौसम रंग बदलते दिखते थे, कोई मौसम उसपर मंज़रों पे, हरा रंग मल जाता था , तो कभी गुच्छों मे लटके हुए फल दिख जाते थे, प्रदर्शनकारियों से लाल पीले. पर जो दूसरी साख थी, उसका रुख़ ज़मीन की तरफ था, झुका हुआ था वो ज़रा, जिसपर मंज़र तो आते थे, पर चर लिए जाते थे, या फिर शिकार हो जाते थे, गुज़रने वालों के उतावलेपन का. और यही सवाल था, कि आख़िरकार एक सी ज़मीन और, एक सी आबो हवा मे, ये कैसा बटवारा है, के किसी के हिस्से हैं तल्खियाँ तो किसी को नाज़ों से सवाराँ है! खैर वो सवाल वक़्त से साथ, बढ़ता चला गया, वो आम का पेड़ अब बढ़कर , मेरे मुल्क जितना बड़ा हो गया है, और आज भी मैं हैरानी से यही सोचता हूँ , पत्तों की सरकार मे कुछ साखें, यूँ महरूम क्