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Showing posts from March, 2014

उसके बचाव में

हाँ, बिल्कुल ज़ायज़ था, तेरा गुस्से मे तकिया फाड़ देना, और बिखेर देना रूई को, आसमान मे चारो तरफ, के आख़िर किस बिनाह पर, तुझे कोसते चलते हैं लोग, के जबकि मैने खुद देखी है, सीधी सटीक वर्गाकार खेतों की मेडे, और सलीके से चुपचाप बहती नदी, स्लो मोशन मे रेंगती मोटर कारे, और सन्नाटे मे डूबा एक पूरा सहर. ना कोलाहल, न कोहराम, ना अल्लाह , ना राम, ना दीवारे, ना दरवाजे, ना जनता, ना महाराजे, ना  शोर, ना संवाद, ना  गम, ना उन्माद. और जबकि मेरा जहाज़ , तो ज़रा सी उँचाई पे रहा होगा, पर तू तो  दूर,  कहीं दूर, बहुत उपर बैठता है ना!