मैने ये तो कभी नही चाहा , कि फलक से तोड़ कर , अपनी टेबल पर सज़ा लूँ चाँद, या फिर मेरी घर की किसी दीवार पर, चमगादड़ के मानिंद लटका रहे, कोई इंद्रधनुष ! रात का इंतज़ार भी, बखूबी किए लेता हूँ, टेबल पर सर रखकर उंघते हुए, और ये भी जानता हूँ के कुदरत की Drawing class भी, रोज़-रोज़ नही लगती. बेशक़ , कि हर खूबसूरत चीज़, हमारी ही हो जाए, ऐसा तो हमने कभी नही माँगा. हाँ!बस ये गुज़ारिश है अपनी, के बित्तो से मापने हैं फ़ासले हमको. उम्मीदों से कहीं दूर ना निकल जाना ! हालाकी ! सुना है चाँद तो बहरा है, क्या सुनेगा वो फरियाद मेरी ? मैने भी कभी कान नही देखे उसके. और , इंद्रधनुष भी शायद ही पढ़ पाता होगा! अब एक तू ही है जो बचा सकती है, इस नज़्म को बेकार जाने से.