उस रात बस हवाएँ चली थी, बिना बारिस के, और रह गया था चाँद सूखा सूखा. वक़्त जैसे-तैसे सरक रहा था, बड़ी मशक्कत से, हौले हौले , केंचुए सा! बड़ी देर तक देखता रहा मैं, अपने ख़यालों की छत से, बूँद बूँद टपकते अंधेरे, और वो बेज़ार सा ,बिखरा हुआ मोम जो शायद सह नही पाया था, लौ की तपिश ! और वो बैठी रही बेफ़िक्र.. मेरे सिरहाने, के जैसे कोई जल्दी ना हो, और मालूम हो जिसे के जो छू दिया मुझको तो तब्दील हो जाऊँगा रेत के ढेर में! पर याद है उस रोज़, अभी वक़्त था भोर होने में, आसमान ज़रा साफ हो चला था, और ज्यों ही हाथ बढ़ाया था मैने उसकी ओर, तो एक ख़याल सा टकराया था. की क्या जवाब दूँगा उसे, जो जो कभी मिलेगा मुझे, के जिसने ज़िक्र किया था मेरा और मैं आ पहुचा था, और यकीन था उसे कि बड़ी लंबी उमर है मेरी. उस रोज़ कहा था मैने के,ऐ ख़ुदकुशी! साँस लेना भी अजीब आदत है, जाते जाते ही जाती है. तू आज फिर लौट जा खाली हाथ, जीने का एक बहाना , अभी और बाकी है.