मैं वो कहाँ लिखता हूँ जो मैं लिखना चाहता हूँ, मैं वो भी नही लिखता जो आप पढ़ना चाहते हैं, हमारे दरम्यान जो बिखरे पड़े हैं, वो तो कुछ लफ्ज़ हैं जो बग़ावत कर बैठे हैं. गर मान लें इनकी तो मेरी रूह का विस्तार, इनकी उड़ान के लिए शायद छोटा पड़ जाता है, या शायद मेरे मन के अंधेरों में , बढ़ जाता है इनकी गुमशुदगी का एहसास. इन्हे लगता है कि बरसो से मैने बस कुचला है इन्हे. कभी वक़्त ने नाम पर, कभी हालात का हवाला देकर ! नादान हैं, नही मालूम इनको गर्दिशे जमाने की, के धूल की परतों तले, गुज़र जाती है ज़िंदगानी भी. अंजान , के कितने महफूज़ थे ये मेरे ख़यालों मे. इन्हे अक्सर लगता था कि मैं कोई तानाशाह हूँ, मेरे लफ्ज़ तू विदा ले,और हिन्दुस्तान देख आ, लोकशाही के हालत भी कुछ ज़्यादा अच्छे नहीं है! P.S. : I am a firm believer in the idea called democracy and India. The last few lines are inspired from the current state of affairs in our country . This is how i show my solidarity with Mr. Aseem Trivedi . You are a hero,Sir! I wish the good sense