यहीं कहीं रखी थी , वो माचिस की डिबिया, खिड़की से उठा कर, के जाने कब कुछ पथ भ्रष्ट बूंदे, इसकी हस्ती के साथ खिलवाड़ कर बैठें. बिल्कुल, इंसानों से जुदा हैं ज़रा, ये बर्बाद होकर नम नही होती, नम होकर बर्बाद हो जाती हैं! बहुत तो नही, पर चंद तीलियाँ रही होंगी, यूँ ही पड़ी होंगी, जल जाने की फिराक़ में, पर अब ये शायद नही होगा, हालाकी किसी को फ़र्क़ भी नही पड़ता, और किसे फ़र्क़ पड़ जाए, तो हमें फ़र्क़ पड़ता है? हाँ ! कभी कभी लगता है, कि, जो हमारी कोशिशें सही पड़ती, तो रोशन करने वाली इन तीलियों के हिस्से, गुमनामी के अंधेरे नही आते, मुक़्क़मल हो जाती शायद इनकी भी ज़िंदगी. ऐ उपरवाले ! जो गर देख रहा है तू , कही हमें देख कर भी तुझे, ऐसा ही तो नही लगता.