जब सांझ उफक़ की राहों पर, अंधियारी का हाथ पकड़, चल पड़े मगन हौले- हौले, देने दस्तक चंदा के घर, जब सूरज आँखे लाल किए, छुप जाए जाकर दूर कहीं, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. जब कहता मुझको जग भूला, यूँ लगता है पा लिया तुझे, जाने क्यों पल मे पछतावा, फिर कर देता है दूर तुझे, जो कुछ पल बीते थे संग संग, उन लम्हों को दुहराने को, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. शायद ग़लती से कर बैठे, कुछ काम समझ के हम जग में, उनके थे हिस्सेदार कई, बेशक़ तुझपे हक़ मेरा बस, तेरा ना दावेदार कोई, कभी मुझपे हक़ जतलाने को, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम. "ग़लती" तेरी क्या ग़लती है, थोड़ी ग़लती तो चलती है, मैं कर्ता हूँ, तू क्रिया मेरी, मैं प्रीतम हूँ, तू प्रिया मेरी, कुछ नाम नही इस रिश्ते का, बस रिश्ता है, बतलाने को, ऐ "ग़लती" ! कल फिर आना तुम, इक लम्हा ख़ास बनाना तुम.