तुम जा रही थी जब. इक दास्तां को अंजाम देकर, हालत से मजबूर इंसान को, बेपरवाही का इल्जाम देकर, कोसती रही थी तुम, मेरे संग बीते हर पल को, भूलाने की कोशिश में, याद करती उस कल को, कुछ जज्बातों से तुम अकेले लड़ी थी, कई सवालो के बीच तुम अकेले अरी थी, अफ़सोस था तुझे उन समझौतों पर, जो तुने मेरी खातिर किये, अफ़सोस था तुम्हे उन कुर्बानियों पर , जो तुने बस मेरे किये दिए. सब कष्टों को तुम, अश्कों में बहती गयी थी.. भविष्य के लिए एक सबक था, तू उसे दुहराती गयी थी. लेकिन मेरे परेशान दिल के पास, अश्कों का सहारा न था, आज आखो को मनाने वास्ते, मेरे पास कोई बहाना ना था.. क्योंकि तुमसे जुरा हर समझौता , मैंने अपनी खातिर किया, जो भी तुझे दिया, अपने खातिर दिया.. तुझपे एहसान किया होता तोः, कुछ खाहिश होती... मैंने तो रिश्ते में दिया, रिश्ते से लिया... उन बीते पलों का मुझे कोई गम नहीं... वो कुछ पल ही थी ज़िन्दगी,वो भी कम नहीं...