वो अक्सर कहती थी ये तेरी कविताएँ कहानी सी लगती है मुझे. और मैं सोचता हो कह दूँ कि कहानियाँ ही तो लिखता हूँ कविताओं में मैं. फिर सोचता हूँ की ये क्यों आख़िर ज़रूरी क्यों हैं कि वो लकीर सी बनी रहे कविता और कहानियों मे. क्यों अच्छा नही लगता जब कविता जीन्स पहन कर निकलती हो, कहानियों की तरह अपने बालों बिना संवारे, बेपरवाह.. खीखियाती! नाख़ून पे अंडमान निकोबार जैसी ज़रा सी बची nail-paint लिए के आज मूड नही था उस नज़ाकत से ब्रश घिसने का. बिना काजल लगाए, बिना वो नक़ाब लगाए, जिसे तमीज़ नाम देते हैं. हाथ आसमान मे फैला कर sunset वाली पिक जो इंस्टाग्राम पे चढ़ाती हो. उन तमाम दायरॉं से बाहर मुझे तो अच्छी लगती है.. हर उपमा से परे, परिभाषाओं से दूर या सुर ताल की बंदिशों से मुक्त बेबाक अच्छी लगती है मुझे,कविता. और हाँ मेरी नज़रों मे कोई कम कविता नही हो वो. और जहाँ तक सवाल है , कहानियों का वो पसंद हैं मुझे जिसमे मिठास हो कविताओं की, और कविताएँ जो अपनी बाहों मे कहानियाँ जकड़े घूमती हैं. खैर तुम भी उसी दुनिया स