आपके हिस्से की कविता, होगी तो ज़रूर कहीं! मुमकिन है घिस गयी होगी आपके जूते के सोल की तरह, जिसने मंज़िले तो बहुत तय की, पर अपने वजूद की कीमत पर! या घुल गयी उस मुस्कुराहट मे जो खिली होगी किसी को दूर जाता देख कर पहली बार साइकल की पेडेल मारते. या बिसरा दी गयी होगी गणित के किसी सवाल मे, ईकाई और दहाई के बीच फँसे हुए हाँसिल की तरह. या फिर गुम गयी होगी उस थरथरती रात की अंधियारी मे , जब रज़ाई से बिना सर बाहर निकले, विदा किया था नाइट शिफ्ट क लिए. या दबी होगी सबसे नीचे किसी सब्जी के थैले मे जिसपर किचन से आवाज़ आई होगी कि जाने किस उम्र मे सीखेंगे ये सब्जी खरीदना. या फिर थमी रह गयी होगी उस कलम की निब पर जिसकी स्याही निपट गयी हो, माँ महबूब और मिट्टी पे लिखते लिखते. या फँसा हुआ हो, कहीं भीतर उन्ही चट्टानी परतों के बीच जहाँ आपके जीवन भर का संघर्ष, बरसों में दबे दबे अब हौसला बन गया है! कहीं तो ज़रूर होगी, पापा, आपके हिस्से की कविता. जो लाख पुकारे जाने पर भी आवाज़ नही देती , सामने नही आती,